श्रील प्रभुपाद: आध्यात्मिक क्रांति के अग्रदूत

हम विश्वभर में लोगों को हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हुए, नाचते गाते हुए देख रहे है…इस्कॉन मंदिर से जुड़ने में लोग अपनी रूचि दिखा रहे है…लेकिन आप जानते है कि इस्कॉन की स्थापना किसने की हैं, कौन हैं वो महापुरुष जिसने हमें श्री चैतन्य महाप्रभु और हरे कृष्ण महामंत्र से परिचित कराया हैं? आज के ब्लॉग में हम इस्कॉन के संस्थापक आचार्य श्रील प्रभुपाद जी के बारें में जानने का प्रयास करेंगे।

भूमिका

श्रील प्रभुपाद जी (अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी) का नाम सुनते ही हमारे मन में एक महान संत की छवि उभर आती है, जिन्होंने पूरी दुनिया में श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। प्रभुपाद जी एक महान भारतीय आध्यात्मिक गुरु, लेखक और समाज सुधारक थे। उन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति और वैष्णव दर्शन को पुनर्जीवित करने का कार्य किया। प्रभुपाद जी ने अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) की स्थापना की। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था – संपूर्ण विश्व में श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार करना। उनकी अपार श्रद्धा, अटूट समर्पण और अपरिमित धैर्य के कारण आज करोड़ों लोग कृष्णभावनामृत को अपना रहे हैं।

श्रील प्रभुपाद का प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक शिक्षा

श्रील प्रभुपाद जी का जन्म 1 सितंबर 1896 को कोलकाता में हुआ था। उनका पारिवारिक नाम अभय चरण डे था। वे एक धार्मिक और वैष्णव संस्कृति से जुड़े परिवार में पले-बढ़े। उनका प्रारंभिक जीवन भारतीय परंपराओं और धार्मिक शिक्षाओं से प्रभावित था। उनके पिता गौर मोहन डे और माता राजेश्वरी देवी थी । उनके पिता एक धार्मिक व्यक्ति थे और उन्होंने श्रील प्रभुपाद को बचपन से ही श्रीकृष्ण भक्ति की शिक्षा दी ,उन्हें बचपन से ही भक्ति के संस्कार दिए।

उन्होंने नन्ही उम्र से ही रथयात्रा उत्सवों में भाग लेना शुरू कर दिया था।। प्रभुपाद जी ने स्कॉटिश चर्च कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की और शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने एक सफल व्यापार की शुरुआत की, लेकिन उनके हृदय में हमेशा आध्यात्मिक चेतना बनी रही। उनका जीवन पूरी तरह बदल गया जब उन्होंने 1922 में अपने गुरुदेव श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से भेंट की। उनके गुरुदेव ने उन्हें आदेश दिया कि वे कृष्ण भक्ति को अंग्रेजी भाषा में पूरे विश्व में फैलाएं।

विवाह और पारिवारिक जीवन

1918 में, अभय चरण जी का विवाह राधारानी देवी से हुआ। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी आध्यात्मिक साधना जारी रखी। वे व्यवसाय में भी प्रवृत्त हुए और फ़ार्मास्युटिकल क्षेत्र में कार्य किया। उनका उद्देश्य था कि वे अपने परिवार का भरण-पोषण करते हुए कृष्ण-भक्ति का प्रचार करें।

हालांकि, गृहस्थ जीवन में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे। उनकी पत्नी अत्यधिक घरेलू प्रवृत्ति की थीं और उनकी भक्ति मार्ग में विशेष रुचि नहीं थी। एक घटना प्रसिद्ध है जब उनकी पत्नी ने उनकी चाय के बदले श्रीमद्भागवत की प्रति को गिरवी रख दिया था। यह घटना उनके लिए एक संकेत बन गई कि उन्हें सांसारिक जीवन से धीरे-धीरे विरक्त होना चाहिए।

श्रील प्रभुपाद ने पहले एक गृहस्थ के रूप में जीवन व्यतीत किया और अपने परिवार का पालन-पोषण किया। लेकिन उनके मन में सदैव यह भावना थी कि उन्हें अपने गुरु के आदेश का पालन करना है और कृष्ण भक्ति का प्रचार करना है। 1933 में, उन्होंने औपचारिक रूप से भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर से दीक्षा ली और गौड़ीय वैष्णव परंपरा में प्रविष्ट हुए। वे अपने गुरु की शिक्षाओं को गहराई से समझने लगे और भागवत प्रचार की ओर अग्रसर हुए।

व्यवसाय से विरक्ति और संन्यास की ओर बढ़ते कदम

1944 में, उन्होंने “बैक टू गॉडहेड” (Back to Godhead) नामक पत्रिका की शुरुआत की, जो बाद में उनके वैश्विक प्रचार का आधार बनी। वे स्वयं लेख लिखते, उन्हें संपादित करते और यहाँ तक कि उन्हें वितरित भी करते।

धीरे-धीरे, उनके अंदर सांसारिक जीवन के प्रति विरक्ति बढ़ने लगी। 1950 के दशक की शुरुआत में, उन्होंने अपने पारिवारिक जीवन से दूरी बना ली और वृंदावन में रहने लगे। वहाँ उन्होंने भक्तिवेदांत भवन में गहन भक्ति और अध्ययन में समय व्यतीत किया।

संन्यास और श्रीमद्भागवत की लेखनी

1959 में, उन्होंने औपचारिक रूप से संन्यास ग्रहण किया और “भक्तिवेदांत स्वामी” नाम धारण किया। इसके बाद उन्होंने पूरी तरह से श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रचार कार्य को समर्पित कर दिया। संन्यास ग्रहण करने के बाद, उन्होंने वृंदावन में रहकर श्रीमद्भागवत का अंग्रेजी में अनुवाद और व्याख्या करना शुरू किया। वे घंटों तक भक्ति साधना और लेखन में लीन रहते थे। उनके द्वारा लिखित श्रीमद्भागवत की टीकाएँ और ग्रंथ बाद में पूरे विश्व में प्रसिद्ध हुए।

यही वह काल था जब वे अपने गुरु के आदेश को पूर्ण रूप से आत्मसात कर चुके थे। अब उनका लक्ष्य केवल एक था—पश्चिमी देशों में श्री चैतन्य महाप्रभु के संदेश का प्रचार।

अमेरिका की यात्रा और इस्कॉन की स्थापना

1965 में, 69 वर्ष की उम्र में, श्रील प्रभुपाद अकेले जलदूत जहाज से अमेरिका गए। उनके पास केवल 40 रुपये और श्रीमद्भगवद गीता की कुछ प्रतियाँ थीं। यात्रा के दौरान उन्हें दो बार गंभीर हृदयाघात (हार्ट अटैक) हुआ, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से वे बच गए।

अमेरिका पहुँचने के बाद, उन्होंने न्यूयॉर्क के टॉम्पकिंस स्क्वायर पार्क में श्रीकृष्ण महामंत्र का कीर्तन शुरू किया, जिससे कई लोग प्रभावित हुए और उनके शिष्य बनने लगे। 1966 में, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) की स्थापना की।

विश्वभर में कृष्ण भक्ति का प्रचार

श्रील प्रभुपाद ने 12 वर्षों में पूरे विश्व का भ्रमण किया और 108 इस्कॉन मंदिरों की स्थापना की। उन्होंने हजारों लोगों को कृष्ण भक्ति से जोड़ा और 70 से अधिक ग्रंथों का अनुवाद और लेखन किया, जिनमें “भगवद गीता यथारूप”, “श्रीमद्भागवतम”, और “चैतन्य चरितामृत” प्रमुख हैं। इन ग्रंथों का अनुवाद सरल भाषा में किया गया, जिससे कोई भी व्यक्ति इसे आसानी से समझ सके। ये ग्रंथ आज भी लाखों लोगों को अध्यात्म की राह दिखा रहे हैं।

कृष्णभक्ति का विश्वव्यापी प्रसार

श्रील प्रभुपाद ने पश्चिमी देशों में भक्ति योग को एक नए स्तर तक पहुँचाया। उन्होंने न केवल मंदिरों की स्थापना की, बल्कि गोशालाओं, गुरुकुलों, प्रसाद वितरण केंद्रों और हरिनाम संकीर्तन कार्यक्रमों की शुरुआत की। उनकी प्रेरणा से आज ISKCON 100 से अधिक देशों में सक्रिय है।

➤ कृष्ण भक्ति को वैश्विक स्तर पर पहुँचाया
➤ श्रीमद्भगवद गीता और अन्य वैदिक ग्रंथों का अनुवाद किया
➤ 108 मंदिरों की स्थापना की
➤ गोशालाओं और वैदिक शिक्षा केंद्रों की शुरुआत की
➤ हरिनाम संकीर्तन को पुनर्जीवित किया

उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि एक सच्चा भक्त कैसे पूरे संसार को आध्यात्मिक रूप से जागरूक कर सकता है।

महान संत का महाप्रयाण

14 नवंबर 1977 को वृंदावन में, श्रील प्रभुपाद ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी कृष्ण भक्ति के प्रचार में समर्पित कर दी। आज भी उनके भक्त और अनुयायी उनकी शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं और पूरे विश्व में कृष्ण प्रेम का संचार कर रहे हैं।

निष्कर्ष

श्रील प्रभुपाद केवल एक संत ही नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी आध्यात्मिक नेता थे, जिन्होंने पूरी दुनिया में भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार किया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि यदि हमारा संकल्प अटूट हो और हम भगवान की सेवा में समर्पित हों, तो असंभव भी संभव हो सकता है।

“हरे कृष्ण महामंत्र का जप करें और श्रील प्रभुपाद की शिक्षाओं का अनुसरण करके अपने जीवन को सफल बनाएं!”

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